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भारतीय समाज व बलात्कार by Abhishek Tiwari

                              
                                 अभिषेक तिवारी
                         युवा विचारक - गोंडा (उ०प्र०)

      अपने पहले ब्लॉग की पहली पोस्ट बलात्कार से शुरू करना होगा यह सोचा नहीं था। यह मेरे लिए अति निंदनीय है कि मैं एक ऐसे देश में रह रहा हूं जहां पर महीलाओं को देवी व माता की श्रेणी में रखा गया। यहां तक कि पुराणों में भी यह वर्णित है कि एक पशु जिसको सारी दुनिया गाय कहती है उसको भी हम मां कह कर पुकारते हैं। जिस देश में जानवरों को भी मां जैसी पद्बी दें दी जाएं उस देश में मुजफ्फरपुर व देवरिया जैसे मामले सामने आ रहें हैं यह सोचकर ही रूह कांप उठती हैं। हमारा देश कहने को तो पुरुष प्रधान समाज है किन्तु सदियों से महिला को पुरुष से ज्यादा माना गया। आज हम कैसे समाज में आ गए हैं? क्या यही हमारे देश की संस्कृति थी? हमारे व्यक्तित्व का परिचय हमारी सोच व विचारधारा पर निर्भर करता व हमारे कर्तव्य का परिचय हमारे समाज के प्रति समर्पण व कर्मों से निर्धारित होती हैं।  फिर भी ना जाने क्यों हम जाति व धर्म से बंधे हुए हैं। आज देश के नेता व मंत्री अपने हित को साधने के लिए समाज में सांप्रदायिक तनाव बना रहें हैं और देश को कभी धर्म के नाम पर तो कभी जाति के नाम पर तो कभी झूठें व खोंखले राष्ट्रवाद के आधार पर देश के युवाओं को बहका कर अपने हित के लिए असामान्य स्थिति पैदा कर रहे हैं। देश में आए दिन हो रहे बलात्कार की घटनाएं कहीं न कहीं उसी जातिगत व धर्मगत विरोध को देश की बेटियों की आबरू को नोंच कर प्रदर्शित हो रही है।
       आइए बात करते हैं देश की कुछ बेटियों की जिनको समाज में व्याप्त राक्षसों ने आज नोंच कर अपने वहसीपन का प्रदर्शन किया आज उनकी स्थिति को जानें। आज देश में स्त्री क्या करेगी, कैसे जिएगी, कैसे अपना मुंह सबको दिखाएगी- ये कैसे सवाल हैं? लोग रो रहे हैं, दुखी हैं, और कह रहे हैं अब तन ढकने से क्या, बेचारी का जो था सो तो सब लुट गया। इज्जत सरेआम रौंद डाली गई। अब तो बेचारी तिल-तिल कर घुट-घुट कर मरेगी। यह सब क्या है। यह कैसी सहानुभूति है, जो बलात्कार का शिकार हुई स्त्री को स्वाभाविक जीवन जीता देखना गवारा नही करती। संसद में बैठी शक्तिशाली स्त्रियां नहीं जानतीं कि रोजाना सार्वजनिक वाहनों में सफर करना महिला के लिए कैसा अनुभव होता है? वे नही जानतीं कि सड़क पर चलना क्या होता है। एक सामान्य पुरुष साथी की तरह खुली हवा में सांस लेने, कभी-कभार फिल्म-पिकनिक की मौज-मस्ती के लिए स्त्री को मानसिक रूप से कितना तैयार होना पड़ता है। चाहे वे जया बच्चन हों, गिरिजा व्यास, सुषमा स्वराज या सोनिया गांधी-अपनी पहचान छोड़ कर सामान्य स्त्री का जीवन एक दिन के लिए जीकर देखें तो शायद इस संसद-रुदन की जरूरत न पड़े। जो कुछ हो रहा है, भयावह है। लग रहा है जैसे कल युग नहीं अपितु सती-युग लौट आया है।
           एक प्रश्न लगातार मन को असमंजस में डाल देता है कि क्या बलात्कार के लिए फांसी देने से बलात्कार रुक जाएगा, जैसी कि लगातार मांग बनाई जा रही है? बलात्कारी के शिश्नोच्छेद की मांग हो रही है। ऐसी मांग का क्या अर्थ है? फांसी दो-फांसी दो के उन्माद में कोई बुनियादी सवाल सुनने तक को तैयार नहीं है। फांसी की भूखी भीड़ को कुछ लाशें चाहिए ही चाहिए जिससे उसकी क्षुधा कुछ देर को शांत हो। फिर उन्माद का कोई और मुद््दा आ जाएगा। क्या मृत्युदंड से इन घटनाओं को काबू किया जा सकता है?

       जहां तक मेरी सोच है बलात्कारी मानता है कि शील भंग के बाद पीड़िता किसी को मुंह दिखाने लायक नहीं बची, उसकी ‘इज्जत’ लुट गई, वह बरबाद हो गई, अब तो उसका जीना मरने से भी बदतर है। इन्हीं मूल्यों के कारण पुरुष बदला लेने के लिए भी बलात्कार को अस्त्र के रूप में इस्तेमाल करते हैं। बलात्कारी को मृत्युदंड या शिश्नोच्छेद की मांग करने वालों के भी मूल्य यही हैं कि अब स्त्री के पास बचा ही क्या। शील गया तो सब गया। शर्म, हया, लाज। इज्जत, शील, चरित्र। ये सब वर्जिन वर्जाइना के पर्याय बना दिए गए हैं। अब लड़की कैसे सिर उठा कर जिएगी। सुषमा स्वराज के रुदन में कहें तो अब उसका जीना-मरना एक समान है। यह हमारे समाज का सोच है कि अगर पीड़ित स्त्री बलात्कार के दंश से उबरना भी चाहे तो हम वैसा नहीं होने देंगे। बलात्कार तो शरीर पर गहरी चोट है जो देर-सबेर भर जानी है। पर मन की कभी न भरने वाली चोट कौन देता है? कौन इस जख्म को लगातार कुरेद कर नासूर बनाने के लिए जिम्मेदार है। यह कैसा समाज है, जो बलात्कारी के ही दृष्टिकोण से सोचता है। बलात्कारी मानता है उसने स्त्री का ‘सब कुछ’ लूट लिया और समाज भी यही मानता है कि स्त्री का सब कुछ लुट गया। और ‘लुटी हुई इज्जत’ कभी वापस नहीं आ सकती। जिसके लिए स्त्री बस एक यौन अंग है जिसके अवैध (बिना शादी) इस्तेमाल से वह अंग सड़ जाता है, हमेशा के लिए अपवित्र हो जाता है। उस समाज में पुन: प्रवेश के अयोग्य हो जाता है। यह कहां का न्याय है? एक बलात्कारी जिसने एक महिला के साथ अथवा एक स्त्री के साथ बलात्कार किया वह ना तो अपवित्र हुआ और ना ही उसका कुछ लुटा किंतु अगर वही महिला के साथ हुआ तो उसका जीना समाज दुश्वार कर देगा। क्या यह तर्कसंगत है? 
        बहुत संकट की स्थिति है। ‘यौनांगों की पवित्रता’ हमारे समाज की बीमारी है। स्त्री के साथ यौन शुचिता का मूल्यबोध जोड़ा गया है, वह खंडित होता है। अब चूंकि शुचिता तो वापस आ नहीं सकती, शुचिता के आईने की किरचें बिखर जाती हैं, जो किसी हाल में नहीं जुड़ सकतीं। इसलिए तूफान आ जाता है। अपराध को अपराध की तरह ही देखा जाना चाहिए वरना अपराध के लज्जा, अपमान, आत्महत्या तक होते हुए समाज न जाने कहां पहुंचेगा।

         भारत में ही कई ऐसे समाज हैं जहां बलात्कार नहीं होते, बच्चियों की भ्रूण हत्याएं नहीं होती, जहां अपराध की दर तथाकथित सभ्य माने जाने वाले समाज की तुलना में न के बराबर है। आप तिब्बती समाज, आदिवासी समाज, मणिपुर सहित पूर्वोत्तर के राज्यों को देखिए और इसी के बरक्स दिल्ली, उत्तर प्रदेश, बिहार, हरियाणा के समाजों के अपराध देखिए। अपराध न हो इसके लिए बेहतर मूल्यों वाला समाज भी रचना होगा, जहां हर जगह महिलाओं की भागीदारी सुनिश्चित की जाए। इस समय जहां इस गंभीर मुद््दे पर समग्र नजरिए से बहस की जरूरत है, इस पर सारे विचार, सारी बहसों को बस फांसी दो-फांसी दो तक लाकर उन्मादी बना दिया गया है। राजनेताओं के लिए भी यह मांग करना और इसे लागू करना-कराना सुविधाजनक है। जहां सदन में कई जनप्रतिनिधि अपने मोबाइल पर नंगी तस्वीरें देखते पकड़ें जाएं, वहां समाज को बदलने की बात कौन करना चाहता है?
        ये घातक स्थितियां हैं और इन्हें हमारा समाज ही निर्मित करता है। स्त्री की यौन-शुचिता को लेकर समाज इतना दुराग्रही है कि उससे आजाद होना बहुत मुश्किल दिखता है। बलात्कारी को तो फांसी दे देंगे लेकिन जो लोग यह सोचते हैं कि अब बेचारी लड़की कैसे जिएगी, क्या करेगी, उसका जीवन तबाह हो गया, उनके इस सोच को फांसी कैसे देंगे? स्त्री बलात्कार के बाद जीना भी चाहे तो इस मानसिकता की वजह से उसकी पढ़ाई-लिखाई, उसका व्यवहार सब परे हटाकर समाज उसे एक यौन-अंग में तब्दील कर देखेगा कि इसका सब कुछ छिन गया। अब इसके पास बचाने को क्या है?

       जहां इस बात पर बहस चलती हो कि लड़की कैसे कपड़े पहनती है, किस समय बाहर जाती है, लड़कों से दोस्ती रखती है, जोर-जोर से हंसती है, वहां सामान्य इंसान के रूप में स्त्री को स्वीकार किया जाना अभी बाकी है। इस कुंठित मनोवृत्ति को फांसी दें! स्त्री को मेहरबानी कर जीने दें, उसे खुली हवा में सांस लेने दें, उसे अपनी जिंदगी के सपने पूरे करने दें। उसे बलात्कार पीड़िता की पहचान में न बदलें!

                            अभिषेक तिवारी
                             युवा विचारक
      छात्र नेता- लाल बहादुर शास्त्री महाविद्यालय गोंडा
               मो. 9453291601,9161980007

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